पिला साक़िया मय-ख़ुनुक आब में
कि थमती नहीं तौबा महताब में
गया दीन कैसा हुज़ूर-ए-नमाज़
वो याद आए अबरू जो मेहराब में
मिले कुछ तो ज़ख़्म-ए-जिगर का मज़ा
बुझा कर रखा तेग़ ज़हराब में
इलाही फ़लक जिस से फट जाए दे
वो तासीर आह-ए-जिगर-ताब में
बुलंद आशियानों पे बिजली गिरी
जो नीचे थे डूबे वो सैलाब में
वो उर्यां में सरमा में थी जिन की शब
गुज़रती समोर और संजाब में
न आए हों आज़ुर्दा लेना ख़बर
पड़ी धूम ये सारे पंजाब में

ग़ज़ल
पिला साक़िया मय-ख़ुनुक आब में
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा