पीरी में भला ढूँढिए क्या बख़्त-ए-जवाँ को
अब क़त्-ए-मोहब्बत ही हुई जिस्म से जाँ को
मौक़ूफ़ कर इस बज़्म में ये चर्ब-ज़बानी
ऐ शम्अ तू कटवाए है क्यूँ अपनी ज़बाँ को
बे-नाम-ओ-निशानी ही बड़ा नाम-ओ-निशाँ है
क्या नाम-ओ-निशाँ चाहिए बेनाम-ओ-निशाँ को
इस मंज़िल-ए-हस्ती में ठहरता नहीं कोई
क्या जाने कि ये क़ाफ़िला जाता है कहाँ को
इंसान तो है सूरत-ए-हक़ काबे में क्या है
ऐ शैख़ भला क्यूँ न करूँ सज्दे बुताँ को
'जोशिश' गुल-ए-मज़मून-ए-चमन तब्अ का तेरे
देखे न कभी ता-ब-अबद रू-ए-ख़िज़ाँ को
ग़ज़ल
पीरी में भला ढूँढिए क्या बख़्त-ए-जवाँ को
जोशिश अज़ीमाबादी