पीना नहीं हराम, है ज़हर-ए-वफ़ा की शर्त
आओ उठा दें आज मय-ए-जाँ-फ़ज़ा की शर्त
शोरीदगी-ए-सर के लिए संग-ए-दर की क़ैद
ज़ंजीर-ए-ग़म के वास्ते ज़ुल्फ़-ए-दोता की शर्त
हो दोपहर की धूप तो पलकों के साएबाँ
रातें गुज़ारनी हों तो काली बला की शर्त
ये क्या ज़रूर हो मिज़ा-ए-इश्क़ ख़ूँ-फ़िशाँ
क्यूँ दस्त-ए-नाज़ के लिए रंग-ए-हिना की शर्त
हर दिल-फ़िगार के लिए क्यूँ चाक-ए-पैरहन
हर दिल-नवाज़ के लिए बंद-ए-क़बा की शर्त
क्या फ़र्ज़ है कि हम भी बनें क़ैस-ए-आमिरी
राह-ए-जुनूँ में क्यूँ हो किसी नक़्श-ए-पा की शर्त
क्यूँ दिल के तोड़ने को कहें रस्म-ए-दिलबरी
क्यूँ हो किसी से वादा-ए-सब्र-आज़मा की शर्त
क्यूँ हो किसी को कूचा-ए-क़ातिल की जुस्तुजू
क्यूँ इम्तिहाँ के वास्ते तेग़-ए-जफ़ा की शर्त
क्यूँ ज़िंदगी को जब्र-ए-मुसलसल का नाम दें
क्यूँ आरज़ू-ए-मौत को दस्त-ए-दुआ की शर्त
क्यूँ हर घड़ी ज़बाँ पे हो जुर्म-ओ-सज़ा का ज़िक्र
क्यूँ हर अमल की फ़िक्र में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा की शर्त
हम ने ख़ुद अपने-आप ज़माने की सैर की
हम ने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त
ग़ज़ल
पीना नहीं हराम, है ज़हर-ए-वफ़ा की शर्त
ख़लील-उर-रहमान आज़मी