फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
दिल अजब अंदाज़ से लहरा गया
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
जिस ने चाहा और जो चाहा गया
एक लम्हा बन के ऐश-ए-जावेदाँ
मेरी सारी ज़िंदगी पर छा गया
ग़ुंचा-ए-दिल हाए कैसा ग़ुंचा था
जो खिला और खिलते ही मुरझा गया
रो रहा हूँ मौसम-ए-गुल देख कर
मैं समझता था मुझे सब्र आ गया
ये हवा ये बर्ग-ए-गुल का एहतिज़ाज़
आज मैं राज़-ए-मुसर्रत पा गया
'अख़्तर' अब बरसात रुख़्सत हो गई
अब हमारा रात का रोना गया
ग़ज़ल
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
अख़्तर अंसारी