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फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से | शाही शायरी
phul apne wasf sunte hain us KHush-nasib se

ग़ज़ल

फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से

वसीम ख़ैराबादी

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फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से
क्या फूल झड़ते हैं दहन-ए-अंदलीब से

अफ़्शाँ तिरी जबीं की हमारी नज़र में है
हम देखते हैं अर्श के तारे क़रीब से

तन्हा लहद में हूँ तो दबाते हैं ये मुझे
क्या क्या उलझ रहे हैं मलक मुझ ग़रीब से

का'बे में उन का नूर मदीने में है ज़ुहूर
आबाद दोनों घर हैं ख़ुदा के हबीब से

यारब बुरा हो दिल की तड़प का कि बज़्म में
बैठे वो दूर उठ के हमारे क़रीब से

मर जाऊँ मैं तो जाओ मुबारक हो जान-ए-मन
अल्लाह से मुझे तुम्हें मिलना रक़ीब से

पहलू-तही जो करती है मिलने में मेरी नब्ज़
कहते हैं ये शरीर मिली है तबीब से

मम्नून हूँ मैं हज़रत-ए-'नौशाद' का 'वसीम'
मिलते हैं क्या ब-लुत्फ़ हुज़ूर इस ग़रीब से