फिर याद उसे करने की फ़ुर्सत निकल आई
मत पूछिए किस मोड़ पे क़िस्मत निकल आई
कुछ इन दिनों दिल उस का दुखा है तो हमें भी
उस शख़्स से मिलने की सहूलत निकल आई
आबाद हुए जब से उन आँखों के किनारे
दुनिया जिसे समझे थे वो जन्नत निकल आई
जो ख़्वाब की दहलीज़ तलक भी नहीं आया
आज उस से मुलाक़ात की सूरत निकल आई
अब आ के गले मिलता है पहले था गुरेज़ाँ
क्या हम से उसे कोई ज़रूरत निकल आई
इक शख़्स की महबूब-निगाही के सबब से
'अश्फ़ाक़' तुम्हारी भी तो क़ामत निकल आई
ग़ज़ल
फिर याद उसे करने की फ़ुर्सत निकल आई
अशफ़ाक़ हुसैन