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फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़ | शाही शायरी
phir uThi aaj wo nigah-e-naz

ग़ज़ल

फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़

महेश चंद्र नक़्श

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फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़
इक नए दौर का हुआ आग़ाज़

हर हक़ीक़त है आईना फिर भी
ज़र्रा ज़र्रा है इक जहान-ए-राज़

लब-ए-शायर पे गीत रक़्साँ हैं
रूह-ए-फ़ितरत है गोश-बर-आवाज़

मेरी ख़ामोशियों के आलम में
गूँज उठती है आप की आवाज़

कोई आलम नहीं क़याम-पज़ीर
लम्हा लम्हा है माइल-ए-परवाज़

'नक़्श' हम अहल-ए-दिल ने देखे हैं
मंज़िल-ए-इश्क़ के नशेब-ओ-फ़राज़