फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़
इक नए दौर का हुआ आग़ाज़
हर हक़ीक़त है आईना फिर भी
ज़र्रा ज़र्रा है इक जहान-ए-राज़
लब-ए-शायर पे गीत रक़्साँ हैं
रूह-ए-फ़ितरत है गोश-बर-आवाज़
मेरी ख़ामोशियों के आलम में
गूँज उठती है आप की आवाज़
कोई आलम नहीं क़याम-पज़ीर
लम्हा लम्हा है माइल-ए-परवाज़
'नक़्श' हम अहल-ए-दिल ने देखे हैं
मंज़िल-ए-इश्क़ के नशेब-ओ-फ़राज़
ग़ज़ल
फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़
महेश चंद्र नक़्श