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फिर शो'ला-ए-गुल मौज-ए-सबा चाहिए यारो | शाही शायरी
phir shoala-e-gul mauj-e-saba chahiye yaro

ग़ज़ल

फिर शो'ला-ए-गुल मौज-ए-सबा चाहिए यारो

मंज़र शहाब

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फिर शो'ला-ए-गुल मौज-ए-सबा चाहिए यारो
गुलनार गुलिस्ताँ की फ़ज़ा चाहिए यारो

पैराहन-ए-जाँ चाक रहे तेज़ हवा में
तूफ़ान में जीने की अदा चाहिए यारो

मतलूब हो गर शाहिद-ए-मा'नी की तजल्ली
अल्फ़ाज़ की सद-रंग क़बा चाहिए यारो

शादाब नई रुत से है गुलज़ार-ए-अदब भी
फूलों को तर-ओ-ताज़ा हवा चाहिए यारो

जितने भी दरीचे हैं सभों को न करो बंद
इक आध दरीचा तो खुला चाहिए यारो

शीशे की कोई चीज़ सलामत न रहेगी
इस दौर में पत्थर की अना चाहिए यारो

दिल संग-ए-मलामत से हिना-रंग है लेकिन
कुछ और रिफ़ाक़त का सिला चाहिए यारो