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फिर से तिरे नुक़ूश नज़र पे अयाँ हुए | शाही शायरी
phir se tere nuqush nazar pe ayan hue

ग़ज़ल

फिर से तिरे नुक़ूश नज़र पे अयाँ हुए

क़मर नक़वी

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फिर से तिरे नुक़ूश नज़र पे अयाँ हुए
लो फिर विसाल-ए-यार के लम्हे जवाँ हुए

इक बात बढ़ के बाइस-ए-नाराज़गी हुई
कुछ लफ़्ज़ मुँह से निकले तो आह-ओ-फ़ुग़ाँ हुए

तेरे सभी दरोग़ वजाहत में छुप गए
और मेरी साफ़ बात पे कितने गुमाँ हुए

क्यूँकर करेंगे याद वो दर्द-ए-फ़िराक़ में
हम इस क़दर क़रीब भी उन के कहाँ हुए

मोहलत ही कब मिली कि सँभल पाते हम 'क़मर'
हम पर तो जितने ज़ुल्म हुए ना-गहाँ हुए