फिर रग-शो'ला-ए-जाँ-सोज़ में नश्तर गुज़रा
नाला क्यूँ आबला-ए-दिल से उलझ कर गुज़रा
मैं हूँ दिल-ए-दारी-ए-अफ़्सून-ए-वफ़ा पर नाज़ाँ
जो रक़ीबों पे न गुज़रा था वो मुझ पर गुज़रा
क्या मुहीत-ए-मय-ए-बे-रंग में तूफ़ाँ आया
जोश-ए-रंग अंजुमन-ए-नाज़ से बाहर गुज़रा
तिश्ना-ए-हसरत-ए-जावेद हूँ मैं क्या जानूँ
क्यूँ गले से मिरे तल्ख़ाबा-ए-कौसर गुज़रा
आओ मेरे दिल-ए-अफ़सुर्दा की तमकीं देखो
जाओ इस कश्मकश-ए-नाज़ से मैं दर-गुज़रा
लुट गई जान तो उम्मीद के पहलू ढूँडे
मिट गई राह तो अंदेशा-ए-रहबर गुज़रा
इस तकल्लुफ़ से गई उम्र-ए-गिराँ-माया 'वफ़ा'
एक दम सैंकड़ों बरसों के बराबर गुज़रा
ग़ज़ल
फिर रग-शो'ला-ए-जाँ-सोज़ में नश्तर गुज़रा
अब्दुल हादी वफ़ा