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फिर रग-शो'ला-ए-जाँ-सोज़ में नश्तर गुज़रा | शाही शायरी
phir rag-e-shoala-e-jaan-soz mein nashtar guzra

ग़ज़ल

फिर रग-शो'ला-ए-जाँ-सोज़ में नश्तर गुज़रा

अब्दुल हादी वफ़ा

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फिर रग-शो'ला-ए-जाँ-सोज़ में नश्तर गुज़रा
नाला क्यूँ आबला-ए-दिल से उलझ कर गुज़रा

मैं हूँ दिल-ए-दारी-ए-अफ़्सून-ए-वफ़ा पर नाज़ाँ
जो रक़ीबों पे न गुज़रा था वो मुझ पर गुज़रा

क्या मुहीत-ए-मय-ए-बे-रंग में तूफ़ाँ आया
जोश-ए-रंग अंजुमन-ए-नाज़ से बाहर गुज़रा

तिश्ना-ए-हसरत-ए-जावेद हूँ मैं क्या जानूँ
क्यूँ गले से मिरे तल्ख़ाबा-ए-कौसर गुज़रा

आओ मेरे दिल-ए-अफ़सुर्दा की तमकीं देखो
जाओ इस कश्मकश-ए-नाज़ से मैं दर-गुज़रा

लुट गई जान तो उम्मीद के पहलू ढूँडे
मिट गई राह तो अंदेशा-ए-रहबर गुज़रा

इस तकल्लुफ़ से गई उम्र-ए-गिराँ-माया 'वफ़ा'
एक दम सैंकड़ों बरसों के बराबर गुज़रा