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फिर लौट कर गए न कभी दश्त-ओ-दर से हम | शाही शायरी
phir lauT kar gae na kabhi dasht-o-dar se hum

ग़ज़ल

फिर लौट कर गए न कभी दश्त-ओ-दर से हम

जगन्नाथ आज़ाद

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फिर लौट कर गए न कभी दश्त-ओ-दर से हम
निकले बस एक बार कुछ इस तरह घर से हम

कुछ दूर तक चले ही गए बे-ख़बर से हम
ऐ बे-ख़ुदी-ए-शौक़ ये गुज़रे किधर से हम

आज़ाद बे-नियाज़ थे अपनी ख़बर से हम
पलटे कुछ इस तरह से दकन के सफ़र से हम

क़ल्ब-ओ-नज़र का दौर बस इतना ही याद है
वो इक क़दम उधर से बढ़े थे इधर से हम

ऐ काश ये सदा भी कभी कान में पड़े
उट्ठो कि लौट आए हैं अपने सफ़र से हम

दिल का चमन है कैफ़-ए-बहाराँ लिए हुए
गुज़रे थे एक बार तिरी रह-गुज़र से हम

आता है इक सितारा नज़र चाँद के क़रीब
जब देखते हैं ख़ुद को तुम्हारी नज़र से हम

इस से ज़्यादा दौर-ए-जुनूँ की ख़बर नहीं
कुछ बे-ख़बर से आप थे कुछ बे-ख़बर से हम

जितनी भी रह गई थी कमी दिल के दर्द में
उतना ही लुट गए हैं मताअ'-ए-नज़र से हम

रोज़-ए-अज़ल से अपनी जबीं में तड़प रही
वाबस्ता यूँ रहे हैं तिरे संग-ए-दर से हम