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फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर | शाही शायरी
phir koi shakl nazar aane lagi pani par

ग़ज़ल

फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर

ज़फ़र इक़बाल

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फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर
सख़्त मुश्किल में हूँ इस तरहा की आसानी पर

उस को परवा ही नहीं है कि वो किस हाल में है
मैं ही महजूब हुआ ख़्वाब की उर्यानी पर

करता रहता हूँ मैं उस बुत की परस्तिश हमा-वक़्त
फिर भी शक है उसे इस जज़्बा-ए-ईमानी पर

इक सदा है कहीं रातों में सफ़र करती हुई
इक हवा है कहीं आई हुई जौलानी पर

कोई रुकता हुआ दरिया मिरे क़दमों में कहीं
कोई झुकता हुआ सूरज मिरी पेशानी पर

वही मानूस थपेड़े थे मिरे चारों तरफ़
मुझे हैरत न हुई धूप की ताबानी पर

वापसी पर जो लगे हैं मुझे अपने जैसे
ख़ुश हुआ हूँ दर-ओ-दीवार की वीरानी पर

एक दिन सुब्ह जो उट्ठें तो ये दुनिया ही न हो
है मदार अब किसी ऐसी ही ख़ुश-इम्कानी पर

शेर होते हैं 'ज़फ़र' लुत्फ़-ए-सुख़न से ख़ाली
दाद मिलती है मुझे अब तो ख़ुश-अल्हानी पर