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फिर इज़्तिराब-ए-शौक़ में ग़म से मफ़र कहाँ | शाही शायरी
phir iztirab-e-shauq mein gham se mafar kahan

ग़ज़ल

फिर इज़्तिराब-ए-शौक़ में ग़म से मफ़र कहाँ

कलीम सहसरामी

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फिर इज़्तिराब-ए-शौक़ में ग़म से मफ़र कहाँ
वो हुस्न-ए-इल्तिफ़ात वो हुस्न-ए-नज़र कहाँ

तारीकी-ए-हयात से घबरा गया है जी
देखें शब-ए-फ़िराक़ की फिर हो सहर कहाँ

तेरे बग़ैर महफ़िल-ए-दिल भी उदास है
ऐ हुस्न-ए-ना-शनास तुझे ये ख़बर कहाँ

अब तक समझ रहा था जिसे तेरी रहगुज़र
था इक फ़रेब-ए-शौक़ तिरी रहगुज़र कहाँ

अर्सा हुआ कि बज़्म-ए-तमन्ना उजड़ चुकी
पहली सी अब वो रौनक़-ए-शाम-ओ-सहर कहाँ

जल्वों की ताब ला न सकी दिल की आँख भी
फिर देखे किस तरह कोई ताब-ए-नज़र कहाँ

इक चश्म-ए-लुत्फ़ का है तिरी मुंतज़िर 'कलीम'
वर्ना जबीन-ए-शौक़ कहाँ संग-ए-दर कहाँ