फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ये मुरव्वत कैसी
दोस्त अहबाब से हँस बोल के कट जाएगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं हम को शब-ए-फ़ुर्क़त कैसी
जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं तबीअ'त कैसी
है जो क़िस्मत में वही होगा न कुछ कम न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को हसरत कैसी
हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीअ'त कैसी
कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में ये वहशत कैसी
ग़ज़ल
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
अकबर इलाहाबादी