फिर छलकता है जाम वहशत का 
शाह-ए-ख़ूबाँ सलाम वहशत का 
एक चश्म-ए-ग़ज़ाल करती है 
चार-सू एहतिमाम वहशत का 
वो गिराँ-गोश हो हमा-तन-गोश 
तो सुनाऊँ कलाम वहशत का 
चाक है अब तिरा गरेबाँ भी 
देख ले इंतिक़ाम वहशत का 
मौज-ए-हैरत सफ़र में रखती है 
ढूँढता हूँ क़याम वहशत का 
आज तो बाग़बाँ ने गुलशन में 
इक बिछाया है दाम वहशत का 
इक तरफ़ मौजा-ए-सुकूँ है 'नदीम' 
इक जानिब ख़िराम वहशत का
        ग़ज़ल
फिर छलकता है जाम वहशत का
कामरान नदीम

