EN اردو
फिर छलकता है जाम वहशत का | शाही शायरी
phir chhalakta hai jam wahshat ka

ग़ज़ल

फिर छलकता है जाम वहशत का

कामरान नदीम

;

फिर छलकता है जाम वहशत का
शाह-ए-ख़ूबाँ सलाम वहशत का

एक चश्म-ए-ग़ज़ाल करती है
चार-सू एहतिमाम वहशत का

वो गिराँ-गोश हो हमा-तन-गोश
तो सुनाऊँ कलाम वहशत का

चाक है अब तिरा गरेबाँ भी
देख ले इंतिक़ाम वहशत का

मौज-ए-हैरत सफ़र में रखती है
ढूँढता हूँ क़याम वहशत का

आज तो बाग़बाँ ने गुलशन में
इक बिछाया है दाम वहशत का

इक तरफ़ मौजा-ए-सुकूँ है 'नदीम'
इक जानिब ख़िराम वहशत का