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फिर भयानक तीरगी में आ गए | शाही शायरी
phir bhayanak tirgi mein aa gae

ग़ज़ल

फिर भयानक तीरगी में आ गए

अहमद नदीम क़ासमी

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फिर भयानक तीरगी में आ गए
हम गजर बजने से धोका खा गए

हाए ख़्वाबों की ख़याबाँ-साज़ियाँ
आँख क्या खोली चमन मुरझा गए

कौन थे आख़िर जो मंज़िल के क़रीब
आइने की चादरें फैला गए

किस तजल्ली का दिया हम को फ़रेब
किस धुँदलके में हमें पहुँचा गए

उन का आना हश्र से कुछ कम न था
और जब पलटे क़यामत ढा गए

इक पहेली का हमें दे कर जवाब
इक पहेली बन के हर सू छा गए

फिर वही अख़्तर-शुमारी का निज़ाम
हम तो इस तकरार से उकता गए

रहनुमाओ रात अभी बाक़ी सही
आज सय्यारे अगर टकरा गए

क्या रसा निकली दुआ-ए-इज्तिहाद
वो छुपाते ही रहे हम पा गए

बस वही मेमार-ए-फ़र्दा हैं 'नदीम'
जिन को मेरे वलवले रास आ गए