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फल आते हैं फूल टूटते हैं | शाही शायरी
phal aate hain phul TuTte hain

ग़ज़ल

फल आते हैं फूल टूटते हैं

इमदाद अली बहर

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फल आते हैं फूल टूटते हैं
ख़ुर्दों से बुज़ुर्ग छूटते हैं

खुलती नहीं गुल की बद-मिज़ाजी
ग़ुंचे नहीं मुँह से फूटते हैं

करते हैं यहाँ हसीं ताराज
नब्बाश लहद में लूटते हैं

होता है फ़िराक़ जान-आे-तन में
बुरों के मिलाप छूटते हैं

इक बुत से मोआमला दरपेश
पत्थर से नसीब फूटते हैं

आसेब हैं गेसूवान-ए-माशूक़
कब हम से लिपट के छूटते हैं

दिल ले के वो जान के हैं ख़्वाहाँ
हर पहर के मुझी को लूटते हैं

हर-वक़्त है कोफ़्त अपने दिल को
रह रह कर सीना कूटते हैं

ख़त पढ़ता है मेरा क्या कहूँ कौन
अग़्यार की दीद से फूटते हैं

रोने-धोने से फ़ाएदा 'बहर'
कब सीने के दाग़ छूटते हैं