फैल रहा है ये जो ख़ाली होने का डर मुझ में
आख़िर-कार सिमट आएगा मेरा बाहर मुझ में
रो दूँगा तो अश्क नहीं आँखों से रेत बहेगी
ख़ून कहाँ कुछ सूखे दरिया हैं सहरा भर मुझ में
पहरों जलता रहता हूँ मैं जैसे कोई सूरज
एक किरन जब रुक जाती है तुझ से छन कर मुझ में
तू मौजूद है मैं मादूम हूँ इस का मतलब ये है
तुझ में जो नापैद है प्यारे वो है मयस्सर मुझ में
क़तरा ठीक है दरिया होने में नुक़सान बहुत है
देख तो कैसे डूब रहा है मेरा लश्कर मुझ में
ग़ज़ल
फैल रहा है ये जो ख़ाली होने का डर मुझ में
अहमद शहरयार