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फाँदती फिरती हैं एहसास के जंगल रूहें | शाही शायरी
phandti phirti hain ehsas ke jangal ruhen

ग़ज़ल

फाँदती फिरती हैं एहसास के जंगल रूहें

हसन अख्तर जलील

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फाँदती फिरती हैं एहसास के जंगल रूहें
कब सकूँ पाएँगी भटकी हुई बे-कल रूहें

पा-शिकस्ता हैं शब-ओ-रोज़ के वीराने में
ढूँडती हैं किसे इस दश्त में पागल रूहें

जब भी उठते हैं निगाहों से ग़म-ए-जाँ के हिजाब
देख लेती हैं किसी शोख़ का आँचल रूहें

रूनुमा हो चमन-ए-दहर में ऐ अब्र-ए-नशात
दर्द की धूप में सँवलाई हैं कोमल रूहें

दिल के उजड़े हुए मंदिर को बसाने के लिए
ले के आई थीं किसी याद की मशअ'ल रूहें

रात सपनों की सभा में मिरे हमराह रहीं
जब खुली आँख हुईं आँख से ओझल रूहें