EN اردو
पेश-ए-आशिक़ चश्म-ए-गिर्यान-ओ-लब-ए-खंदाँ है एक | शाही शायरी
pesh-e-ashiq chashm-e-giryan-o-lab-e-KHandan hai ek

ग़ज़ल

पेश-ए-आशिक़ चश्म-ए-गिर्यान-ओ-लब-ए-खंदाँ है एक

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

;

पेश-ए-आशिक़ चश्म-ए-गिर्यान-ओ-लब-ए-खंदाँ है एक
जल गया जो नख़्ल उस को बर्क़ और बाराँ है एक

देखने देता नहीं उस को हिजाब-ए-इश्क़ हाए
हूँ मैं वो महरूम जिस को वस्ल और हिज्राँ है एक

ना-तवानी से तिरे बीमार के रुख़्सार पर
सैली-ए-दस्त-ए-सितम और साया-ए-मिज़्गाँ है एक

पैरहन में यूँ बदन है जिस तरह से तन में रूह
चश्म-ए-बद दूर अब लताफ़त में वो जिस्म-ओ-जाँ है एक

माह से तश्बीह फिर तुझ को न क्यूँ कर दीजिए
चाँदनी और साया तेरा ऐ मह-ए-ताबाँ है एक

आप से बेहतर की आगे ख़ुद-नुमाई है ज़ुबूँ
रू-ब-रू-ए-मेहर माह-ओ-अब्र-ए-बे-बाराँ है एक

चाहिए हँस कर छिड़कना ऐ लब-ए-जानाँ नमक
आतिश-ए-ग़म से कबाब और ये दिल-ए-सोज़ाँ है एक

आशिक़ों के आगे मुशरिक ऐ बुत-ए-यकता हूँ मैं
गर कहूँ मैं हुस्न में तू और मह-ए-कनआँ है एक

सैकड़ों तूती-ज़बाँ हैं याँ असीर-ए-दाम-ए-ग़म
ख़ाना-ए-सय्याद और ये गुम्बद-ए-गर्दां है एक

एक ही ये नूर है दिल में हर इक के जल्वा-गर
शीशे हैं लाखों परी सब में वले पिन्हाँ है एक