पेच भाया मुझ को तुझ दस्तार का
बंद है दिल तुर्रा-ए-ज़रतार का
जी फँसा है जा के उस ज़ुल्फ़ों के बीच
दिल शहीद उस नर्गिस-ए-बीमार का
पेच में हूँ तेरे ढीले पेच सूँ
महव हूँ इस चीरा-ए-ज़रतार का
तुझ को है हम से जुदाई आरज़ू
मेरे दिल में शौक़ है दीदार का
क्यूँ न बाँधे दिल को 'फ़ाएज़' ज़ुल्फ़ सूँ
शौक़ है काफ़िर के तीं ज़ुन्नार का
ग़ज़ल
पेच भाया मुझ को तुझ दस्तार का
सदरुद्दीन मोहम्मद फ़ाएज़