EN اردو
पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी | शाही शायरी
payambar main nahin aashiq hun jaani

ग़ज़ल

पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी

हैदर अली आतिश

;

पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी
रहे मूसी ही से ये लन-तरानी

सुलैमाँ हम हैं ऐ महबूब-ए-जानी
समझते हैं तुझे बिल्क़ीस-ए-सानी

खुला सौदे में उन ज़ुल्फ़ों के मर कर
परेशाँ ख़्वाब थी ये ज़िंदगानी

ये क्यूँ आता है उन से क़द-कुशी को
गड़ी जाती है सर्व-ए-बोस्तानी

वही देगा कबाब-ए-नर्गिसी भी
जो देता है शराब-ए-अर्ग़वानी

रंगा है इश्क़ ने किस दर्द-ए-सर से
हमारा जामा-ए-तन ज़ाफ़रानी

मुसाफ़िर की तरह रह ख़ाना-बर-दोश
नहीं जाए-ए-इक़ामत दार-ए-फ़ानी

तिरे कूचे के मुश्ताक़ों के आगे
जहन्नम है बहिश्त-ए-आसमानी

वो मय-कश हूँ दिया है क़ाबला ने
जिसे ग़ुस्ल-ए-शराब-ए-अर्ग़वानी

यक़ीं है दीदा-ए-बारीक-बीं को
करे ऐनक तलब ये ना-तवानी

वो ख़त है यादगार-ए-हुस्न-ए-रफ़्ता
वो सब्ज़ा है गुलिस्ताँ की निशानी

निकलती मुँह से क़ासिद के नहीं बात
मगर लाया है पैग़ाम-ए-ज़बानी

ये मुश्त-ए-ख़ाक हो मक़्बूल-ए-दरगाह
सबा की चाहता हूँ मेहरबानी

लिए हैं बोसा-ए-रुख़्सार-ए-साफ़
पिया है हम ने आईने का पानी

सफ़ेदी मू की हो काफ़ूर हर-चंद
कोई मिटता है ये दाग़-ए-जवानी

न ख़ुश हो फ़रबही-ए-तन से ग़ाफ़िल
सुबुक करती है मुर्दे को गिरानी

मुए जो पेशतर मरने से वो लोग
कफ़न समझे क़बा-ए-ज़िंदगानी

जलाती है दिल 'आतिश' तूर की तरह
किसी पर्दा-नशीं की लन-तरानी