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पत्थरों से दोस्ती क्या भा गई | शाही शायरी
pattharon se dosti kya bha gai

ग़ज़ल

पत्थरों से दोस्ती क्या भा गई

नुसरत मेहदी

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पत्थरों से दोस्ती क्या भा गई
इक नदी अपनी रवानी खा गई

देर तक क़िस्मत पड़ी सोती रही
धूप घर के बाम-ओ-दर तक आ गई

इक किरन ख़ुशबू की सूरत आई और
ना-गहाँ कमरा मिरा महका गई

ख़ुद उजालों के लिए माँगी दुआ
अपनी तारीकी से शब घबरा गई

चाँद उतरा नूर की महफ़िल में जब
रौशनी ही रौशनी पर छा गई