पत्थर मुझे शर्मिंदा-ए-गुफ़तार न कर दे
ऊँचा मिरी आवाज़ को दीवार न कर दे
मजबूर-ए-सुख़न करता है क्यूँ मुझ को ज़माना
लहजा मिरे जज़्बात का इज़हार न कर दे
ज़ंजीर समझ कर मुझे तोड़ा तो है तू ने
अब तुझ को परेशाँ मिरी झंकार न कर दे
चलता हूँ तो पड़ते हैं क़दम मेरे हवा पर
डरता हूँ हवा चलने से इंकार न कर दे
रह जाऊँ न मैं अपने ही क़दमों से कुचल कर
पामाल मुझे ख़ुद मिरी रफ़्तार न कर दे
मैं ख़ुद को मिटा कर तिरा शहकार बना हूँ
नीलाम मुझे तू सर-ए-बाज़ार न कर दे
हर साँस नए ज़ख़्म लगाती है 'मुज़फ़्फ़र'
टुकड़े मिरे इक रोज़ ये तलवार न कर दे
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ग़ज़ल
पत्थर मुझे शर्मिंदा-ए-गुफ़तार न कर दे
मुज़फ़्फ़र वारसी