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पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है | शाही शायरी
patthar ki qaba pahne mila jo bhi mila hai

ग़ज़ल

पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है

ज़ुबैर रिज़वी

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पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है
हर शख़्स यहाँ सोच के सहरा में खड़ा है

ने जाम खनकते हैं न काफ़ी के पियाले
दिल शब की सदाओं का जहाँ ढूँड रहा है

सड़कों पे करो दौड़ते पहियों का तआ'क़ुब
उमडी हुई आकाश पे सावन की घटा है

जाते हुए घर तुम जो मुझे सौंप गए थे
वो वक़्त मुझे छोड़ के बेगाना हुआ है

तुम पास जो होते तो फ़ज़ा और ही होती
मौसम मिरे पहलू से अभी उठ के गया है

मल्बूस से छनते हुए शादाब बदन ने
तहज़ीब-ए-ख़यालात को आवारा किया है