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पस-मंज़रों के सामने मंज़र ही रह न जाएँ | शाही शायरी
pas-manzaron ke samne manzar hi rah na jaen

ग़ज़ल

पस-मंज़रों के सामने मंज़र ही रह न जाएँ

इरतिज़ा निशात

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पस-मंज़रों के सामने मंज़र ही रह न जाएँ
सीनों के राज़ सीनों के अंदर ही रह न जाएँ

कहने की बात और है करने की बात और
या'नी ये सोच लीजिए कह कर ही रह न जाएँ

देखो वही तो वक़्त नहीं आ रहा है फिर
फिर आज अपने साथ बहत्तर ही रह न जाएँ

इक दूसरे को ये जो हड़प कर रहे हैं हम
सोचो ज़मीं न हो तो समुंदर ही रह न जाएँ

इस बार गिर पड़ी हैं छतें भी मकान की
इस बार हाथ हाथ पे धर कर ही रह न जाएँ

भाई दुआ का शीश-महल भी है कोई चीज़
हाथों में बद-दुआओं के पत्थर ही रह न जाएँ

कुछ कर के ऐ 'निशात' दिखाओ वगर्ना फिर
अफ़रासियाब-ओ-ख़िज़्र-ओ-सिकंदर ही रह न जाएँ