पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
ये इक भूला हुआ पर आज हम अफ़्साना कहते हैं
कोई ख़ून-ए-तमन्ना हो झलक आता है आँखों में
इसी को इत्तिहाद-ए-बादा-ओ-पैमाना कहते हैं
तबाही दिल की देखी है जो हम ने अपनी आँखों से
हो अब कैसी ही बस्ती हम उसे वीराना कहते हैं
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं
जफ़ा पर सब्र सीखा है वफ़ा पर जान जाती है
यही है और किस को तोहमत-ए-मर्दाना कहते हैं
तुम्हारी ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ में रहा क्यूँ-कर दिल-ए-वहशी
तुड़ा ले जाए जो ज़ंजीर उसे दीवाना कहते हैं
मआज़-अल्लाह तेरा हुस्न तेरी बज़्म-ए-इशरत में
ये वो महफ़िल है जिस में शम्अ को परवाना कहते हैं
यहाँ तो जान तक दे दी 'नज़र' पादाश-ए-उल्फ़त में
मगर बेदाद-गर बाक़ी अभी जुर्माना कहते हैं
ग़ज़ल
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी