पस-ए-सुकूत सुख़न को ख़बर बनाया जाए
फ़सील-ए-हर्फ़ में मा'नी का दर बनाया जाए
हिसाब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हो चुका बहुत अब के
वुफ़ूर-ए-शौक़ को अर्ज़-ए-हुनर बनाया जाए
लगन उड़ान की दिल में हनूज़ बाक़ी है
कटे परों ही को अब शाह-पर बनाया जाए
किसी पड़ाव पे पहुँचेंगे जब तो सोचेंगे
अभी से क्या कोई ज़ाद-ए-सफ़र बनाया जाए
फ़राज़-ए-दार पे कर के बुलंद आख़िर-ए-शब
मिरे ही सर को निशान-ए-सहर बनाया जाए
बहुत तवील हुआ सिलसिला रक़ाबत का
कभी मिलो तो उसे मुख़्तसर बनाया जाए
क़दम क़दम पे है बस्ती में वहशियों का हुजूम
चलो कहीं किसी सहरा में घर बनाया जाए
ज़मीर-ए-नौ-ए-बशर कब से हो चुका रुख़्सत
नए ख़मीर से ताज़ा बशर बनाया जाए
मफ़र मुहाल है क़ैद-ए-मकाँ से जब 'इरफ़ाँ'
तो क्यूँ न फिर इसी गुम्बद को घर बनाया जाए
ग़ज़ल
पस-ए-सुकूत सुख़न को ख़बर बनाया जाए
इरफ़ान वहीद