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पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैं | शाही शायरी
pas-e-parda tujhe har bazm mein shamil samajhte hain

ग़ज़ल

पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैं

ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब

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पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैं
कोई महफ़िल हो हम उस को तिरी महफ़िल समझते हैं

बड़े होशियार हैं वो जिन को सब ग़ाफ़िल समझते हैं
नज़र पहचानते हैं वो मिज़ाज-ए-दिल समझते हैं

वो ख़ुद कामिल हैं मुझ नाक़िस को जो कामिल समझते हैं
वो हुस्न-ए-ज़न से अपना ही सा मेरा दिल समझते हैं

समझता है गुनह रिंदी को तू ऐ ज़ाहिद-ए-ख़ुद-बीं
और ऐसे ज़ोहद को हम कुफ़्र में दाख़िल समझते हैं

समझता है ग़लत लैला को लैला क़ैस दीवाना
नज़र वाले तो लैला को भी इक महमिल समझते हैं

सड़ी दीवाना सौदाई जो चाहे सो कहे दुनिया
हक़ीक़त-बीं मगर 'मज्ज़ूब' को आक़िल समझते हैं