पस-ए-दीवार हुज्जत किस लिए है
दरीचे से ये वहशत किस लिए है
न मैं अपना न मैं तेरा हूँ दुनिया
तो फिर जीने की हसरत किस लिए है
अगर सूद ओ ज़ियाँ के हम हैं क़ाएल
जुनूँ से अपनी क़ुर्बत किस लिए है
जफ़ा ही जब तिरी पहचान ठहरी
वफ़ा में मुझ को लज़्ज़त किस लिए है
मिरी आँखों पे जो पहरा है तेरा
तो आईने से रग़बत किस लिए है
ख़ुद अपने घर में है जब अजनबी तो
मिरे भाई ये शोहरत किस लिए है
सफ़र में जब न तेरे काम आए
ज़रा ये सोच दौलत किस लिए है
अदब ही ज़िंदगी में जब न आया
अदब में इतनी मेहनत किस लिए है
निकल आए हैं दीवारों पे चेहरे
तसव्वुर की ये जिद्दत किस लिए है
मिरा आईना है जब तेरा चेहरा
तो फिर दुनिया की हैरत किस लिए है
ख़मोशी है जवाब-ए-जाहिलाँ जब
ज़बाँ जैसी ये नेमत किस लिए है
है दुनिया का जवाज़ इस अम्र ही में
जहन्नम क्यूँ है जन्नत किस लिए है
खिले हैं फूल सहरा में व-लेकिन
मुझे घर में ये फ़रहत किस लिए है
नहीं वाक़िफ़ है दिल ईसार से जब
'अता' इज़हार-ए-उल्फ़त किस लिए है
ग़ज़ल
पस-ए-दीवार हुज्जत किस लिए है
अता आबिदी