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पर्वा नहीं उस को और मुए हम | शाही शायरी
parwa nahin usko aur mue hum

ग़ज़ल

पर्वा नहीं उस को और मुए हम

जुरअत क़लंदर बख़्श

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पर्वा नहीं उस को और मुए हम
क्यूँ ऐसे पे मुब्तला हुए हम

गो पीसे ही डाले जूँ हिना वो
पर छोड़ें न पाँव बिन छुए हम

मिज़गान-ए-दराज़ उस की कर याद
सीने पे ग़ड़ोते हैं सुए हम

रोने से मकान-ए-ख़ाना बोले
बस लाख जगह से अब चुए हम

इक बाज़ी-ए-इश्क़ से हैं आरी
खेले हैं वगर्ना सब जुए हम

ख़ूबाँ को बिन उस के देखें क्या ख़ाक
माटी के समझते हैं थुए हम

दम आँखों में आ रहा है, लो जान
जल्द आओ वगर्ना अब मुए हम

उठ जाने से उस के 'जुरअत' ऐ वाए
मालूम नहीं कि क्या हुए हम