पर्वा नहीं उस को और मुए हम
क्यूँ ऐसे पे मुब्तला हुए हम
गो पीसे ही डाले जूँ हिना वो
पर छोड़ें न पाँव बिन छुए हम
मिज़गान-ए-दराज़ उस की कर याद
सीने पे ग़ड़ोते हैं सुए हम
रोने से मकान-ए-ख़ाना बोले
बस लाख जगह से अब चुए हम
इक बाज़ी-ए-इश्क़ से हैं आरी
खेले हैं वगर्ना सब जुए हम
ख़ूबाँ को बिन उस के देखें क्या ख़ाक
माटी के समझते हैं थुए हम
दम आँखों में आ रहा है, लो जान
जल्द आओ वगर्ना अब मुए हम
उठ जाने से उस के 'जुरअत' ऐ वाए
मालूम नहीं कि क्या हुए हम
ग़ज़ल
पर्वा नहीं उस को और मुए हम
जुरअत क़लंदर बख़्श