परिंदे लौट के जब घर को जाने लगते हैं
हमें भी याद दर-ओ-बाम आने लगते हैं
फ़सील-ए-सरहद-ए-माज़ी धड़कने लगती है
जो ख़्वाब नींद का दर खटखटाने लगते हैं
हुबाब धूप की बारिश में फूटते बनते
सबात-ए-ज़ात का मतलब बताने लगते हैं
सर-ए-महाज़ तिरे आते ही हरीफ़ मिरे
ये मेरे हाथ मुझे आज़माने लगते हैं
तिरे ख़याल की महफ़िल जो सजने लगती है
क़रीब-ए-हाल गुज़िश्ता ज़माने लगते हैं
जो आसमान को ज़िद है तो कम नहीं हम भी
कि बाद-ए-बर्क़ नए घर बनाने लगते हैं
जो सुनते हैं कि तिरे शहर में दसहरा है
हम अपने घर में दिवाली सजाने लगते हैं
सुनी-सुनाई सी हर इक कहानी लगती है
नए हैं लफ़्ज़ मआनी पुराने लगते हैं

ग़ज़ल
परिंदे लौट के जब घर को जाने लगते हैं
जमुना प्रसाद राही