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परिंदे जा चुके हैं कब के घोंसलों को भी | शाही शायरी
parinde ja chuke hain kab ke ghonslon ko bhi

ग़ज़ल

परिंदे जा चुके हैं कब के घोंसलों को भी

जलील हैदर लाशारी

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परिंदे जा चुके हैं कब के घोंसलों को भी
बताए रस्ता कोई हम मुसाफ़िरों को भी

मैं जानता हूँ कि इक दिन हमें बिछड़ना है
सँभाल रक्खा जभी तो है आँसुओं को भी

अभी तो दूर है मंज़िल कि काटनी हैं अभी
मिली जो विर्से में हैं उन मसाफ़तों को भी

कहाँ वो वक़्त हवाओं पे हुक्म चलता था
और अब ये हाल तरसते हैं आहटों को भी

अजब हैं हम कि बनाना मकान कच्चा ही
और एहतिमाम से घर लाना बारिशों को भी

सभी लगे हैं जो पैवंद करने शाख़ों को
किसी ने देखा है दीमक-ज़दा जड़ों को भी