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परिंदे बे-क़रारी में | शाही शायरी
parinde be-qarari mein

ग़ज़ल

परिंदे बे-क़रारी में

ख़ुर्शीद तलब

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परिंदे बे-क़रारी में
मुसलसल बर्फ़-बारी में

हमीं क्यूँ ज़द में आते हैं
हमेशा चाँद-मारी में

हमारी क़ौम ज़िंदा है
फ़क़त मरदुम-शुमारी में

बहुत नुक़सान होता है
ज़ियादा होशियारी में

कमी कुछ रह गई है क्या
हमारी जाँ-निसारी में

क़लम फ़य्याज़ होता था
'तलब' बे-रोज़-गारी में