परिंदे बे-क़रारी में
मुसलसल बर्फ़-बारी में
हमीं क्यूँ ज़द में आते हैं
हमेशा चाँद-मारी में
हमारी क़ौम ज़िंदा है
फ़क़त मरदुम-शुमारी में
बहुत नुक़सान होता है
ज़ियादा होशियारी में
कमी कुछ रह गई है क्या
हमारी जाँ-निसारी में
क़लम फ़य्याज़ होता था
'तलब' बे-रोज़-गारी में
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ग़ज़ल
परिंदे बे-क़रारी में
ख़ुर्शीद तलब