परिंदा क़ैद में कुल आसमान भूल गया
रिहा तो हो गया लेकिन उड़ान भूल गया
मिरे शिकार को तरकश में तीर लाया मगर
वो मेरी जान का दुश्मन कमान भूल गया
उसे तो याद है सारा जहान मेरे सिवा
मैं उस याद में सारा जहान भूल गया
वो शख़्स ज़िंदगी भर का थका हुआ था मगर
जो पाँव क़ब्र में रक्खे थकान भूल गया
ग़रीब-ए-शहर ने रक्खी है आबरू वर्ना
अमीर-ए-शहर तो उर्दू ज़बान भूल गया
तमाम शहर का नक़्शा बनाने वाला 'रज़ा'
जुनून-ए-शौक़ में अपना मकान भूल गया
ग़ज़ल
परिंदा क़ैद में कुल आसमान भूल गया
हाशिम रज़ा जलालपुरी