पर्दे पर्दे में बहुत मुझ पे तिरे वार चले
साफ़ अब हल्क़ पे ख़ंजर चले तलवार चले
दूरी-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद कोई हम से पूछे
बैठे सौ बार हम उस राह में सौ बार चले
कौन पामाल हुआ उस की बला देखती है
देखता अपनी ही जो शोख़ी-ए-रफ़्तार चले
बे-पिए चलता है यूँ झूम के वो मस्त-ए-शबाब
जिस तरह पी के कोई रिंद-ए-क़दह-ख़्वार चले
चश्म ओ अबरू की ये साज़िश जिगर ओ दिल को नवेद
एक का तीर चले एक की तलवार चले
कुछ इस अंदाज़ से सय्याद ने आज़ाद किया
जो चले छुट के क़फ़स से वो गिरफ़्तार चले
जिस को रहना हो रहे क़ैदी-ए-ज़िंदाँ हो कर
हम तो ऐ हम-नफ़सो फाँद के दीवार चले
फिर 'मुबारक' वही घनघोर घटाएँ आईं
जानिब-ए-मय-कदा फिर रिंद-ए-क़दह-ख़्वार चले
ग़ज़ल
पर्दे पर्दे में बहुत मुझ पे तिरे वार चले
मुबारक अज़ीमाबादी