पर्दा पड़ा हुआ था ख़ुदी ने उठा दिया 
अपनी ही मआरिफ़त ने तुम्हारा पता दिया 
दर दर की ठोकरों ने शरफ़ को मिटा दिया 
क़ुदरत ने क्यूँ ग़रीब को इंसाँ बना दिया 
अपने वजूद का भी तो कोई सुबूत हो 
मैं था कहाँ कि मुझ को किसी ने मिटा दिया 
अल्लाह रे जब्हा साई-ए-ख़ाक-ए-हरीम-ए-दोस्त 
बंदे को बंदा सज्दे को सज्दा बना दिया 
हिस मुर्दा थी हयात-ए-मुसलसल में ज़ीस्त की 
तख़रीब-ए-ज़िंदगी ने पयाम-ए-बक़ा दिया 
फिर उस के घर में हो न सकी रौशनी कभी 
जिस का चराग़ तू ने जला कर बुझा दिया 
कोई ख़ुशी ख़ुशी नहीं अपने लिए 'शफ़ीक़' 
किस की निगाह ने सबक़-ए-ग़म पढ़ा दिया
        ग़ज़ल
पर्दा पड़ा हुआ था ख़ुदी ने उठा दिया
शफ़ीक़ जौनपुरी

