परछाइयों के शहर ज़मीं पर बसा दिए
बदली हटा के चाँद ने जंगल सजा दिए
कितने ही दाएरों में बटा मरकज़-ए-ख़याल
इक बुत के हम ने सैकड़ों पैकर बना दिए
टूटे किसी तरह तो फ़ज़ाओं का ये जुमूद
आँधी रुकी तो हम ने नशेमन जला दिए
अब रास्तों की गर्द से अटते नहीं बदन
नक़्श-ए-क़दम असीर-ए-गुल-ए-तर बना दिए
इक चाँद की तलाश में घूमे नगर नगर
लौटे तो आसमाँ ने सितारे बुझा दिए
बाज़ी तो हम ने आज भी हारी नहीं हुज़ूर
नज़रें बचा के आप ने मोहरे उठा दिए
ठहरी हुई हवा में भड़कते नहीं चराग़
झोंकों ने लौ बढ़ाई दिए जगमगा दिए
'अंजुम' लबों में जज़्ब हुईं तल्ख़ियाँ तमाम
मुरझा गई बहार जो हम मुस्कुरा दिए
ग़ज़ल
परछाइयों के शहर ज़मीं पर बसा दिए
अंजुम अंसारी