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पराई आग में यूँ जल-बुझे शरर मेरे | शाही शायरी
parai aag mein yun jal-bujhe sharar mere

ग़ज़ल

पराई आग में यूँ जल-बुझे शरर मेरे

वली आलम शाहीन

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पराई आग में यूँ जल-बुझे शरर मेरे
खुले न मुझ पे भी अहवाल बेशतर मेरे

है ज़र्द रेंगते सायों की ज़द में शाख़-ए-गुलाब
तुम आए हो भी तो किस रुत में आज घर मेरे

सज़ा वजूद से भी क़ब्ल हो चुकी मक़्सूम
ख़बर न रख मिरी इस दर्जा बे-ख़बर मेरे

छतों पे साया-कुनाँ बेल जल गई होगी
सुलग उठे हैं कुछ इस तौर बाम-ओ-दर मेरे

हमारे बीच सराबों का एक रिश्ता था
कहाँ बिछड़ गए सहरा में हम नज़र मेरे

वो राख बनती हुई गूँज में सितारा-बार
सिरहाने कौन परेशाँ था रात-भर मेरे

उतर रही थी किरन बर्फ़ की चटानों पर
चला गया वो मुझे ख़्वाब सौंप कर मेरे

गुज़र गई शब-ए-यलदा तो ये हुआ मा'लूम
सुरंग पार भी दुश्मन थे हम-सफ़र मेरे

दयार-ए-बाद-ए-जुनूब ऐ दयार-ए-बाद-ए-जुनूब
तुझे सुकून तो है गुल बिखेर कर मेरे

मैं ताक़ ताक़ हूँ 'शाहीन' कब से शमअ'-ब-कफ़
कि ज़ीना ज़ीना वो उतरे कभी तो घर मेरे