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पर-ए-जिब्रील भी जिस राह में जल जाते हैं | शाही शायरी
par-e-jibril bhi jis rah mein jal jate hain

ग़ज़ल

पर-ए-जिब्रील भी जिस राह में जल जाते हैं

हयात मदरासी

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पर-ए-जिब्रील भी जिस राह में जल जाते हैं
हम वहाँ से भी बहुत दूर निकल जाते हैं

महफ़िल-ए-दिल को है माँगे के उजाले से गुरेज़
दीप दाग़ों के सर-ए-शाम ही जल जाते हैं

साफ़ उड़ जाता है ख़ासान-ए-ख़राबात का रंग
हम वो मय-ख़्वार हैं पी पी के सँभल जाते हैं

इक हक़ीक़त ही हक़ीक़त है अज़ल हो कि अबद
वैसे अफ़्सानों के उन्वान बदल जाते हैं

देखिए नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-वफ़ा का ए'जाज़
रास्ते दूध के मानिंद उबल जाते हैं

ज़िंदगी अस्ल में तामीर-ए-मोहब्बत है 'हयात'
दे के हम दहर को पैग़ाम-ए-अमल जाते हैं