पलकों पर मोती रक्खे हैं सोचों पर सन्नाटा है
ताबीरों का शोर बहुत है ख़्वाबों पर सन्नाटा है
आँखों से बातें करने का मौसम है ख़ामोश रहो
और तो सब कुछ जाएज़ है याँ लफ़्ज़ों पर सन्नाटा है
दिन तो ख़ैर गुज़ारे हम ने हँस कर भी चुप रह कर भी
लेकिन जब से बिछड़े हैं तुम से रातों पर सन्नाटा है
शायद अब मौसम के पंछी आएँ तो चहकार उड़े
चिड़ियों के घर जब से उजड़े पेड़ों पर सन्नाटा है
कौन से दिन हैं बच्चों के बिन रस्ते सूने सूने हैं
कोई ज़ुल्फ़ नहीं लहराती गलियों पर सन्नाटा है
किस से कह कर हल्के हो लें कोई अब मिलता ही नहीं
दिल में हूक बहुत उठती है होंटों पर सन्नाटा है

ग़ज़ल
पलकों पर मोती रक्खे हैं सोचों पर सन्नाटा है
मरग़ूब अली