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पलकों की दहलीज़ पे चमका एक सितारा था | शाही शायरी
palkon ki dahliz pe chamka ek sitara tha

ग़ज़ल

पलकों की दहलीज़ पे चमका एक सितारा था

अमजद इस्लाम अमजद

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पलकों की दहलीज़ पे चमका एक सितारा था
साहिल की इस भीड़ में जाने कौन हमारा था

कोहसारों की गूँज की सूरत फैल गया है वो
मैं ने अपने-आप में छुप कर जिसे पुकारा था

सर से गुज़रती हर इक मौज को ऐसे देखते हैं
जैसे इस गिर्दाब-ए-फ़ना में यही सहारा था

हिज्र की शब वो नीली आँखें और भी नीली थीं
जैसे उस ने अपने सर से बोझ उतारा था

जिस की झिलमिलता में तुम ने मुझ को क़त्ल किया
पतझड़ की उस रात वो सब से रौशन तारा था

तर्क-ए-वफ़ा के बा'द मिला तो जब मा'लूम हुआ
इस में कितने रंग थे उस के कौन हमारा था

कौन कहाँ पर झूटा निकला क्या बतलाते हम
दुनिया की तफ़रीह थी इस में हमें ख़सारा था

जो मंज़िल भी राह में आई दिल का बोझ बनी
वो उस की ता'बीर न थी जो ख़्वाब हमारा था

ये कैसी आवाज़ है जिस की ज़िंदा गूँज हूँ मैं
सुब्ह-ए-अज़ल में किस ने 'अमजद' मुझे पुकारा था