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पलट पलट के मैं अपने पे ख़ुद ही वार करूँ | शाही शायरी
palaT palaT ke main apne pe KHud hi war karun

ग़ज़ल

पलट पलट के मैं अपने पे ख़ुद ही वार करूँ

शफ़क़त सेठी

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पलट पलट के मैं अपने पे ख़ुद ही वार करूँ
वो मेरी ज़द में खड़ा है मैं क्या शिकार करूँ

घरों पे ख़ून छिड़कती हवा में गुज़री हैं
इबादतों को गिनूँ या गुनह शुमार करूँ

धुएँ के फूल मुंडेरों पे रोज़ खिलते हैं
मैं क्या रुतों के तग़य्युर पे ए'तिबार करूँ

परिंदे जब भी बसेरों को लौटते देखूँ
मैं घर में बैठ के अपना भी इंतिज़ार करूँ

मैं शब को तैरते तारों से ख़ौफ़ खा जाऊँ
मैं दिन को डूबते तिनकों पे इंहिसार करूँ