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पलट के दौर-ए-ज़माँ सुब्ह-ओ-शाम पैदा कर | शाही शायरी
palaT ke daur-e-zaman subh-o-sham paida kar

ग़ज़ल

पलट के दौर-ए-ज़माँ सुब्ह-ओ-शाम पैदा कर

शातिर हकीमी

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पलट के दौर-ए-ज़माँ सुब्ह-ओ-शाम पैदा कर
नए तरीक़ से दुनिया में नाम पैदा कर

तिरा मज़ाक़ उड़ाते हैं देखने वाले
अगर निज़ाम ग़लत हो निज़ाम पैदा कर

नज़र को तूर बना दिल को मरकज़-ए-असरार
ग़म-ए-अलस्त से ऐश-ए-दवाम पैदा कर

सुकून मौत की तम्हीद है ज़माने में
लहू में हरकत ओ सोज़-ए-तमाम पैदा कर

नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद मुस्कुराता चल
गुलों की तरह ज़माना में नाम पैदा कर

फ़लक भी तेरी बुलंदी को पा नहीं सकता
हवस को छोड़ के लेकिन मक़ाम पैदा कर

अमीन-ए-हुस्न जहाँ-ताब है तिरी हस्ती
जहाँ में पुख़्तगी-ए-इश्क़-ए-ख़ाम पैदा कर

ख़ुदा के नाम पे दुनिया को लूटने वाले
ख़ुदी का दिल में ज़रा एहतिमाम पैदा कर

अदू भी नाज़ उठाए वो काम कर 'शातिर'
ज़माना सर को झुका दे वो नाम पैदा कर