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पैहम इक इज़्तिराब अजब ख़ुश्क-ओ-तर में था | शाही शायरी
paiham ek iztirab ajab KHushk-o-tar mein tha

ग़ज़ल

पैहम इक इज़्तिराब अजब ख़ुश्क-ओ-तर में था

अकबर हैदरी

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पैहम इक इज़्तिराब अजब ख़ुश्क-ओ-तर में था
मैं घर में आ रुका था मिरा घर सफ़र में था

क्या रौशनी थी जिस को ये आँखें तरस गईं
क्या आग थी कि जिस का धुआँ मेरे सर में था

बस एक धुँद ख़्वाबों की फ़िक्र-ओ-ख़याल में
बस एक लम्स दर्द का शाम-ओ-सहर में था

हर अहद को समेटे हुए चल रहा था मैं
नादीदा साअ'तों का उजाला नज़र में था

हर लम्हा था तलाश की सदियाँ लिए हुए
मेरी बक़ा का राज़ ही इल्म-ओ-ख़बर में था