पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे
जंगल की रास क्यूँ न हो आब-ओ-हवा मुझे
आना अगर तिरा नहीं होता है मेरे घर
दौलत-सरा में अपने ही इक दिन बुला मुझे
वो होवे और मैं हूँ और इक कुंज-ए-आफ़ियत
इस से ज़ियादा चाहिए फिर और क्या मुझे
पैदा किया है जब से कि मैं रब्त-ए-इश्क़ से
बेगाना जानता है हर एक आश्ना मुझे
काफ़िर बुतों की राह न जा आ ख़ुदा को मान
पीर-ए-ख़िरद ने गरचे कहा बार-हा मुझे
पर क्या करूँ कि दिल ही नहीं इख़्तियार में
उस ख़ानुमा-ख़राब ने आजिज़ किया मुझे
पहले ही अपने दिल को न देना था उस के हाथ
'ईमान' अब तो कोई पड़ी है वफ़ा मुझे
ग़ज़ल
पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान