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पहलू के आर-पार गुज़रता हुआ सा हो | शाही शायरी
pahlu ke aar-par guzarta hua sa ho

ग़ज़ल

पहलू के आर-पार गुज़रता हुआ सा हो

आदिल मंसूरी

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पहलू के आर-पार गुज़रता हुआ सा हो
इक शख़्स आइने में उतरता हुआ सा हो

जीता हुआ सा हो कभी मरता हुआ सा हो
इक शहर अपने आप से डरता हुआ सा हो

सारे कबीरा आप ही करता हुआ सा हो
इल्ज़ाम दूसरे ही पे धरता हुआ सा हो

हर इक नया ख़याल जो टपके है ज़ेहन से
यूँ लग रहा है जैसे कि बरता हुआ सा हो

क़ैलूला कर रहे हों किसी नीम के तले
मैदाँ में रख़्श-ए-उम्र भी चरता हुआ सा हो

माशूक़ ऐसा ढूँडिए क़हतुर-रिजाल में
हर बात में अगरता मगरता हुआ सा हो

फिर बा'द में वो क़त्ल भी कर दे तो हर्ज क्या
लेकिन वो पहले प्यार भी करता हुआ सा हो

गर दाद तू न दे न सही गालियाँ सही
अपना भी कोई ऐब हुनरता हुआ सा हो