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पहले वो क़ैद-ए-मर्ग से मुझ को रिहा करे | शाही शायरी
pahle wo qaid-e-marg se mujhko riha kare

ग़ज़ल

पहले वो क़ैद-ए-मर्ग से मुझ को रिहा करे

सईद अख़्तर

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पहले वो क़ैद-ए-मर्ग से मुझ को रिहा करे
फिर हो तो बेवफ़ाई का बे-शक गिला करे

अब कश्मकश के बोझ की ताक़त नहीं रही
अब दिल में कोई आस न जागे ख़ुदा करे

हो शम्अ' तो बताए कि जलते हैं किस तरह
जुगनू भी मर गए हों तो परवाना क्या करे

वो हुक्म दे रहे हैं मगर सोचते नहीं
किस तरह कोई दिल को जिगर से जुदा करे

वो मुश्तइ'ल कि ज़िद की भी है इंतिहा कोई
हम मुंतज़िर कि आज मगर इब्तिदा करे

अंदर का बाग़ जिस का बदल जाए दश्त में
वो शख़्स तेरे फूल से चेहरे को क्या करे

ख़ैरात भी मिली न जहाँ से तमाम उम्र
'अख़्तर' वहीं पे आज भी बैठा दुआ करे