पहले तो ख़्वाब ज़ेहन में तश्कील हो गया
फिर सैल-ए-वक़्त में कहीं तहलील हो गया
बे-नूर रास्तों में जो भटके हुए थे लोग
जुगनू भी उन के वास्ते क़िंदील हो गया
कंकर मलामतों के गिराता है मिस्ल-ए-संग
मुझ में कोई परिंद अबाबील हो गया
वक़्त-ए-तुलूअ' आया गहन आफ़्ताब पर
दिन चढ़ रहा था रात में तब्दील हो गया
था जिस ग़नी के पास ख़ज़ीना-ए-इल्म-ओ-फ़न
वो अहद-ए-नौ के हाथ में ज़म्बील हो गया
अपने घरों के कर दिए आँगन लहू लहू
हर शख़्स मेरे शहर का क़ाबील हो गया
लौह-ए-जबीं पे वक़्त ने वो हर्फ़ लिख दिए
चेहरा ग़म-ए-हयात की तफ़्सील हो गया
सद शुक्र 'सोज़' मेरे ख़यालात के लिए
मेरा क़लम वसीला-ए-तर्सील हो गया
ग़ज़ल
पहले तो ख़्वाब ज़ेहन में तश्कील हो गया
हीरानंद सोज़