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पहले क़ब्रिस्तान आता है फिर अपनी बस्ती आती है | शाही शायरी
pahle qabristan aata hai phir apni basti aati hai

ग़ज़ल

पहले क़ब्रिस्तान आता है फिर अपनी बस्ती आती है

फ़रहत एहसास

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पहले क़ब्रिस्तान आता है फिर अपनी बस्ती आती है
जाने कितनी क़ब्रों से हो कर शम-ए-हस्ती आती है

चढ़ कर सारी शराबें जब औक़ात पे अपनी आ जाती हैं
चढ़ता है दरिया-ए-ख़ूँ और मिट्टी को मस्ती आती है

रौशनी उस की डाक से आने में तो ज़माने लग जाते हैं
इस दौरान इक नूर की चिट्ठी कभी कभी दस्ती आती है

बाज़ार-ए-हस्ती जाते हैं क्या क्या ख़्वाहिश ले कर लेकिन
मौत ख़रीद के ले आते हैं क्यूँ कि ज़रा सस्ती आती है

कच्ची मिट्टी के 'फ़रहत-एहसास' ज़रा पानी में सँभल कर
दरिया में तुम ख़ूब नहाते हो जब भी मस्ती आती है